गोंडी नृत्य कला का विकास gondi koya nruty

गोंडी नृत्य कला का विकास gondi koya nruty

सांस्कृतिक शिक्षा का ही एक अंग नृत्य कला है ।

गोंडी नृत्य कला की व्युत्पत्ति भलें ही भौंरो की रूंजि और रूंजन से हुई है , फिर भी उस कला में यदि किसी ने वृद्धि की है , तो वह गोंडी पुनेम मुठवापोय रूपोलंग पारी पहांदी कुपार लिंगो है । उसने अपने शिष्यों को धार्मिक शिक्षा के साथ साथ सामुदायिक और सांस्कृतिक शिक्षा भी प्रदान की सांस्कृतिक शिक्षा का ही एक अंग नृत्य कला है ।

( इस से पहिला आर्टिकल पढिएं )
गोंडी नृत्य की उत्पत्ति

गोंडी नृत्य कला गोटुल संस्था में दी जाती है ।

कौन से पर्व पर किस प्रकार का गीत गाकर नृत्य करना चाहिये इस बारे में परिपूर्ण जानकारी पारी कुपार लिंगो ने अपने शिष्यों को पढ़ाया । तत्पश्चात लिंगो के शिष्य गोंडी पुनेम का प्रचार एवं प्रसार करने हेतु कोयामुरी दीप में चारों ओर निकल पड़े । उन्होंने सम्पूर्ण कोया वंशिय गण्डजीवों को उनके आनुवांशिक गुणसंस्कारों के आधार पर सगायुक्त समुदायिक व्यवस्था में संरचित किया और सामुदायिक तथा पुनेमी मूल्यों की शिक्षा दी । उसी तरह हर ग्राम में गोटुल संस्था प्रस्थापित कर उसमें सगा समुदाय के बच्चों को शिक्षित करने का कार्य किया गया । गोंटुलों में सांस्कृतिक शिक्षा का एक भाग नृत्य कला भी पढ़ाया जाता है । इस तरह कौन से तीज त्योहार पर किस प्रकार का गीत गाकर एंव बाजा बजाकर नृत्य करना चाहिये इसकी जानकारी गोटुल संस्था में दी जाती है ।

गोंडी पुनेम मुठवापोय पारी पहांदी कुपार लिंगो को नृत्य संगीत के अगुआ के रूप में माना जाता है । गोंड समुदाय में ऐसी मान्यता है कि उनके मुठवापोय पारी पहांदी कुपार लिंगो अठारह प्रकार के वाद्य धारण कर एकसाथ बजाया करते थे । गोंडी नृत्य वादयो के प्रकार

गोंडी पुनेम मुठवा लिंगो के सेमरगाव , बाजागढ , निंगोगढ़ और अन्य स्थलों में भी अठारह प्रकार के वाद्य सुरक्षित रखे हुए हैं । इसलिये कोया वंशिय गोंड समुदाय के गण्डजीव किसी भी पर्व में नृत्य करने के प्रारंभ में अपने मुठवापोय पारी पहादी कुपार लिंगो को स्मरण करने हेतु विभिन्न प्रकार के गीत गाते हैं । पारी कुपार लिंगो का अभिवादन करने के लिये चांदागढ़ , अदिलाबाद और बस्तर परिक्षेत्र में निम्न गीत गाया जाता है ।

गीत (पाठा) जलद ही अपडेट किया जाएगा ।

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