गोंडी नृत्य कला का दर्शन | gondwana ka nritya

गोंडी नृत्य कला का दर्शन | gondwana ka nritya


Gondi nrutya image

गोंडी नृत्य क्या है

कोया वंशीय गोंड समुदाय के गण्डजीवों का जीवन नृत्यगान से ओतपोत भरा हुआ है । उनके सभी समुदायिक और धार्मिक विधियों में नृत्यगान का कार्यक्रम अनिवार्य होता है । नृत्य और गीतों के बिना उनके सभी कार्यक्रम फिके एवं नीरस पड़ जाते हैं । गोंडी नृत्य का दृष्य इतना मनमोहक तथा स्फूर्तिदायक होता है कि प्रेक्षकों के दिलों में भी अपने जगह पर ही नृत्य गान करने की इच्छा जाग्रत हो जाती है । उनके नृत्य गीतों का तालबद्ध मधुर संगीत हर एक के मन को मोह लेता है ।

इस बात की पुष्टि निम्न गोंडी पाटा से होती है ।

गोंडी बाजाता किमया

इमा केंजा नावा रनमुनिया , गोंडी बाजाता किमया ॥
गोंडी बाजाता लेंग , उण्डे पाटाना सुरेंग ।
फड़ा फेपळिता पेंग उण्डे नगाराता नेग ।।
चुडूर टिमकीता टिम उण्डे नलगुजाता सूर ।
अद झनेराता झिम उण्डे कीकरीता कूर ।।
इताल आयाता गोंडी बाजाता दुनिया , जीवाना मोदूर गंगे मासी हन्ता ।
मति बिल्मेमासी सुन्न आसी हन्ता ॥
मेंदोल उमळेमासी जोसते वायाता ।
नोयाता पीळा अद मरूंगसी हन्ता ।।
इमा केंजा - इताल आयाता गोंडी सूरता गुणिया – इमा केंजा – ।।
काल्क येदीले डाका वाटीतांग ।
कईक सेहताले लेहारे मायातांग ।।
नळी लुस्की जियाले आयाता ।
तला लटकजीसी डोलेमायाता ।।
इताल आयाता गोंडी येंदीना गुंजिया - इमा केंजा – ।।
वंजेर वारीले पुळपुळ आयाता ।
कवी केंजीले तरसे मायाता ॥
कन्क सूळीले तार बियातांग ।
जीवांग येंदीले मचे मायातांग ।।
इताल आयाता गोंडी रूंजीना रूंजिया - - इमा केंजा ।।
सेळी सेळाल जवानासी हंतोर ।
रूं रूंजे मासी रेलापाटा वारीतोर ।।
कयदे कय बिसी डाका वाटीतोर ।
नळी हाले किसी लुस्की जीयातोर ॥
- इताल आयाता गोंडी रंगीना रंगिया - इमा केंजा ।।

गोंडी नृत्य क्यों करते है ?

उक्त गोंडी गीत में यह उल्लेख है कि जब गोंडी नृत्यगान आरंभ हो जाता है तब उसके वाद्यों की आवाज से गण्डजीवों की बौद्धिक शक्ति बधीर हो जाती है , मन सुन्न हो जाता है , शरीर में हलचल पैदा हो जाती है और वे अपनी पीड़ा को भूलकर नृत्यगान में मग्न हो जाते हैं । गोंडी वाद्यों कि धून से पैर थिरकने लग जाते हैं , हाथ लहराने लग जाते हैं , कमर हिलने लग जाता है और सीर डोलने लग जाता है । जवान गीत गाने लग जाते हैं , कान सूनने लग जाते हैं , आंखे केंद्रीभूत होकर देखने लग जाती हैं और जी नृत्य करने के लिये ललचाने लगता है । वृद्धा - वृद्ध जवान हो जाते हैं , एक सुर में झुम झुम कर गीत गाते हैं , हाथों में हाथ धरकर थिरकते हैं और उनका कमर हिलोरा लेने लग जाता है । इसतर गोंडी बाजा का किमया , गोंडी धून का दुनिया , गोंडी नृत्य का गुणिया और गोंडी रंग के रंगिया का प्रभाव गण्डजीवों पर होता है । उनका मन मोहित होकर वे अपने दुःख दर्द भूल कर नृत्यगान में मग्न हो जाते हैं । ऐसे गोंडी नृत्य कला की व्यूत्पत्ति के बारे में जो कथासार कोया वंशीय गोंड समुदाय के गण्डजीवों में अनादि काल से प्रचलित है।

उसका संक्षिप्त सार इस प्रकार है

गोंडी समुदाय मे रेला .. रेला .. क्यों गाते है ?

गोंडी पुनेम मुठवापोय रूपोलंग पारी पहांदी कुपार लिंगाने कली कंकाली दाई के बच्चों को कोयली कचाड़ गुफा से मुक्त कर उन्हें अपने गोटुल में ले आया और सगा शिष्य बनाकर गोंडी पुनेम दर्शन की शिक्षा देने का कार्य आरंभ किया । उसके शिष्य हर दिन सुबह उठकर अपना नित्य कार्यक्रम कर लिंगो से पुनेमी शिक्षा ग्रहण कर रहे थे । उसी दौरान एक दिन हर रोज की तरह सुबह उसके शिष्य नदी में स्नान करने चले गये । रास्ते में उन्हें एक सुगंधित फुलों वाला पेड़ दिखाई दिया । उस पेड़ के फूलों की महक इतनी मनमोहक थी कि उस महक से पास पड़ोस का वातावरण सुगंधित हो गया था , जिसके कारण असंख्य भौरें रूं . रूं ... रूं ... करते हुए उस पेड़ के फूलों के ऊपर मंडरा रहे थे । अति शिघ्रता से एक फूल से दूसरे फूल पर और दूसरे फूल से तीसरे फूल पर सभी भौरे एक विशेष प्रकार की गति से एक के बाद एक चक्कर लगा रहे थे । लिंगो के शिष्य उस दृष्य को देखकर मोहित हो गये । उन भौरों की विशेष प्रकार की क्रमबद्ध हलचल और उनकी प्रणय लिला वे देखते ही रह गये । उस दृष्य में वे इतना आकर्षित हो गये कि वे भी भौरों के समान अपनी कण्ठ से रूं .. रूं .. रूं .. स्वर निकालकर उसी पेड़ के चारों ओर गोल गोल वलयाकार थिरकने लगे । जिस तरह भौरें रूं .. रूं . रूं ... करते हुए एक फूल से दूसरे फूल पर मंडरा रहे थे , ठीक उसी तरह वे सभी एक दूसरे के हाथों में हाथ डालकर धीमें गति से भौरों के समान रूं .. रूं .. रूं का रूंजन निकालकर नृत्य करने लगे ।

उस नृत्यगान में वे इतने रम गये कि सुबह से दोपहर कैसे हो गया उन्हें पता भी नहीं चला । नृत्य करते करते जब वे थक गये , तब उनके ध्यान में आया कि वे स्नान करने हेतु नदी पर जा रहे थे । किन्तु रास्ते में ही समय बीत गया , इसलिये उनके मुठवापोय नाराज हुए बिना नहीं रहेंगे । तुरन्त नदी में जाकर उन्होंने शौच मुख मार्जन एंव स्नानादि कर जब वे गोटुल में लौट आये तब उनके मुठवापोय ने उनसे विलंब से लौटने का कारण पूंछा । वे अपने मुठवापोय को जवाब देने के बजाय आपस में एक दूसरे के हाथों में हाथ डालकर उसके सामने ही रूं .. रूं .. रूं .. का स्वर निकालकर नृत्य करने लगे

कुपार लिंगो की नृत्य

गोंडी पुनेम मुठवापोय पारी पहांदी कुपार लिंगो को उनका नृत्य इतना प्रिय लगा कि वे स्वयं भी उनके

साथ हाथों में हाथ डालकर तथा स्वर में स्वर मिलाकर नृत्य करने लगे । उस नृत्य में वे सभी इतने लीन हो गये कि उसी क्रिया से उन्हें नृत्य कला का साक्षात्कार हुआ । अंत में लिंगो ने अपने शिष्यों से उस नृत्य को पढ़ाने वाले के बारे में पूंछा , जिस पर उसके शिष्यों ने भौरों के रूंजन की बात कह सुनाई । सत्यता जानने के बाद पारी कुपार लिंगो ने अपने शिष्यों को क्षमा कर दिया ।

गोंडी नृत्यकला का साक्षात्कार

कोया वंशिय गण्डजीवों के गोंदोला ( समुदाय ) की गोंडी नृत्यकला का साक्षात्कार कर देनेवाला जो कोई भी होगा तो वह भौंरा है । भौंरा को गोंडी भाषा में गण्डोला कहा जाता है और गण्डोलांग ( भौरों ) की रूंजि डालने की जो क्रिया है , वही कोया वंशिय गण्डजीवों के समुदाय की नृत्य कला की प्रक्रिया हैं , जिसे पदन्यास कहा जाता है । उसी तरह उन गण्डोलांग ( भौंरों ) का जो रू .. रूं .. रूंजन निकलता है उसी पर से रेनं .. रेनं .. रेंन .. ऐसा गोंडी नृत्य गीतों का प्रारंभिक पालुपद है ।

गोंडी नृत्य कला तथा गीतों के स्वरों

किसी भी संभाग में जाकर गोंडी नृत्य कला तथा गीतों के स्वरों का अध्ययन करने पर यह ज्ञात होता है कि गोंडी नृत्य कला तथा गीतों का स्वर और भौरों के रूजन में पूर्णरूपेन साम्यता और सादृष्यता है । एक संभाग से दूसरे संभाग में केवल यह फरक दिखाई देता है कि किसी संभाग में गीतों का स्वर रून .. रूंन .. रून से आरंभ होता है , तो कहीं रेना .. रेना.. रेना स्वर से और कहीं रेलो .. रेलो .. रेलो .. स्वर से आरंभ होता है । जिस प्रकार गण्डोलांग ( भौरें ) एक केंद्र में केंद्रिीभूत होकर अपनी वलयाकार रूजि डालते हैं , ठिक वैसाही कोया वंशीय गोंदोला के गण्डजीव एक केंद्र में केंद्रिभूत होकर (गोल) वलयाकार रूप से परिक्रमा करते हुए नृत्य गान करते हैं । उनका जीवन भी सगायुक्त समुदाय में वलयाकार रूप से केंद्रिभूत है ।


वलय को गोंडी भाषा में गण्ड कहा जाता है । जिसपर से गण्डोला या गोंदोला ( समुदाय ) शब्द बना है ऐसा प्रतित होता है । इस बात की पुष्टि सिंधु घाटी के उत्खनन से प्राप्त मुहर क्र . २६५७ से होती है , जिस में 卌 जो पाठ अंकित है उसे गोंडी भाषा में दायें से बायें गण्ड आलाल तोर मुन्द ओमाल ऐसा पढ़ा गया हैं जिसका अर्थ समुदाय का प्रथम व्यक्ति ऐसा होता है ।
उक्त पाठ में गण्ड के लिये (गोल) वलयाकार चिन्ह अंकित है , जिस पर से गोंड समुदाय के वलयाकार रूप में केंद्रिभूत जीवन पद्धति की पुष्टि होती है ।

आगे की जाणकारी गोंडी नृत्य कला का विकास


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