पारी कुपार लिंगो गोंडी(कोया) पूनेम दर्शन.
( स्वयं प्रकाशित होकर औरों को प्रकाशित कीजिए , स्वय ज्ञानी बनकर ज्ञान दान दीजिए , सगा भाई बनकर सगा संबंध प्रस्थापित कीजिए और स्वयं सेवक बनकर सगा सेवा कीजिए । )
(Note:- अगर किसीभी शब्द उच्चारण में गलती हुई हों तो उस शब्द को समझने की कोशिश करें)
(1) - आर्यों का आगमन होने के पूर्व का युग.
कोया वंशीय गोंड सगा समुदाय में गोंडी पुनेम से संबंधित जो कथासार एवं मिथक मुंह जबानी प्रचलित हैं उस आधार पर गोंडी पुनेम की संस्थापना कब और कौनसे युग में की गई है . इसका हम मोटे तौर पर अवश्य अनुमान लगा सकते हैं । गोंडी पुनेम कथासारों से इस पुनेम की संस्थापना कोयापारी पहादी कुपार लिंगो मुठवापोय द्वारा संभू शेक के कार्यकाल में की गई है । संभू शेक याने संभू महादेव , जिसका युग इस देश में आर्यों का आगमन होने के पूर्व का युग माना जाता है ।
(2) - गोंडी भाषा में संभू शेक का अर्थ!
गोंडी भाषा में संभू शेक का अर्थ पंच खण्ड परती का स्वामी ऐसा होता है । उसीतरह गोंडी पुनेमी मान्यता के अनुसार सतपुड़ा के पेन्कमेढ़ी ( पेंचमढ़ी ) कोट से इस चंच खण्ड धरती पर एक के पश्चात दूसरा ऐसे कुल अट्ठाशी संभू शेकों ने अपनी अधिसत्ता चलाई है । संभू शेक एक उपाधि है , जिससे पंच खण्ड धरती के राजा या स्वामी को संबोधित किया जाता था । उक्त सभी संभू शेकों की उपासना कोया वंशीय गोंड समुदाय के लोग संभू मा - दाब के रुप में आज भी करते हैं ।संभू मादाव इस गोंडी शब्द का अर्थ संभू हमारा पिता ऐसा होता है ,
(3) - जिस पर से संभू महादेव ऐसा शब्द बना है!
जिस पर से संभू महादेव ऐसा शब्द बना है । सभी संभू अपने अर्घागनियों की जोड़ी से ही जाने जाते हैं । जैसे संभू मूला , संभू गोंदा , संभू मूग , संभू सैया , संभू रमला . संपू बीरो , संभू रय्या , संभू अनेदी , संभू ठम्मा , संभू हीरो , संभू गवरा , संभू बेला , संभू तुरसा , संभू आली , संभू सती , संभू मीरजा , संभू पार्वती आदि । संभू मूला यह प्रथम संभू शेक की जोड़ी थी , जिसका नाम कोसोडूम था । वह पेन्कमेढ़ी कोट के कोटप्रमुख कुलीनरा का पुत्र था , जिसने सभी जीवों का कल्याण साध्य करने हेतु भुदशूल सरीं वैगुण्यशूल मार्ग प्रतिपादित किया । संभू पार्वती यह अंतिम संभू की जोड़ी थी , जिसका नाम संभूर था और जिसके कार्यकाल में कोया वंशीय गोंडीवेन सगा गोंदोला ( सगा समुदाय ) के गण्डजीवों के गण्डराज्यों पर विदेशी घुमन्तु आर्य जातियोंने आक्रमण किया था ।
(4) - पुनेम यह संयुक्त गोंडी शब्द है
संभू गवरा की मध्य की जोड़ी है , जिसके कार्यकाल में पूर्वाकोट गण्डराज्य के गण्डप्रमुख पुलशिवहिरबा के परिवार में एक रूपोलग नामक महान गण्डजीव ने जन्म लिया और आगे चलकर जिसने कोया वंशीय कोया मन्बाल गण्डजीवों का सर्व कल्याण साध्य करने हेतु गोंडी पुनेम की संस्थापना की और अपने महत्त्वपूर्ण विशेष कृतियों से कोयापारी पहादी लिगो मुठवापोय नाम से विख्यात हुआ । ( १ ) माता कली कंकाली के मंडुन्द कोट ( तैतीस कोट ) बच्चों , जिन्हे समू गवरा ने कोयली कबाड़ लोहगढ़ कोया ( गुफा ) में बंद कर दिया था , को रायतार जगो और हीरासुका पाटालीर की साहयता से मुक्त कर कोयापारी पहादी कुपार लिगो ने उन सभी को अपने शिष्य बनाया और गोंडी पुनेम की शिक्षा एवं दिक्षा प्रदान कर उन्हीं के माध्यम से गोंडी पुनेम मूल्यों का प्रचार एवं प्रसार किया । इसतरह अ कोया मन्वाल ( गुफा निवासी ) कुपार लिगो के शिष्यों के नाम से गोंडी पुनेम को कोया पुनेम भी कहा जाता है । कोया वंशीय याने आदि शक्ति दाई की कोया ( कोक ) से जन्म लेनेवाले और कोया मन्बाल याने गुफा या कंदरा में निवास करनेवाले , पहादी पारी कुपार लिगो के उन्हीं शिष्यों की उपासना सगा मूठ देवताओं के रुप में आज भी कोया वंशीय गोंड समुदाय के लोग करते हैं । कोया पुनेम का अर्थ कोया वंशियों का सत्मार्ग ऐसा होता है । पुनेम यह संयुक्त गोंडी शब्द है , जो पुय और नेम इन दो शब्दों की मेल से बना है । पुय याने सत्य और नेम याने मार्ग , जिस पर से कोया पुनेम याने कोया वंशियों का सत्मार्ग ।
(5) - हम कोया वंशीय है
हड़प्पा मोहन जोदड़ो के उत्खनन से प्राप्त मुद्रा क्र . ३०४ में भैसा सिंग युक्त सीगमोहूर धारी योगिक मुद्रा में विराजमान देवता की चित्रकृति अंकित है , जिसके अगल बगल में पालतु एवं जंगली जानवरों के चित्रकृतिया भी उकेरी गई है । उक्त मुद्रा के देवता की चित्रकृती के शीर्ष भाग में सिधु लिपि में ///// ऐसा पाठ अंकित है , जिसे द्रवीड पूर्व गोंडी भाषा में दाएं से बाएं आल कोया पारी पहादी मुठवापोय आन्द ऐसा पढा गया है , जिसका अर्थ यह कोया वंशीय सगापारी पहादी ( बड़ा ) गुरु मुखिया है ऐसा होता है । सिधु घाटी में किए गए उत्खनन से प्राप्त उक्च मुद्रा में अंकित पाठ इस तथ्य का प्रमाण है कि कोया पुनेम की संस्थापना कोया पुनेम मुठवा ( गोंडी पुनम गुरु ) पहादी पारी कुपार लिगो के द्वारा कई हजारों वर्ष पूर्व काल में की गई है । ( २ )
कोया वंशीय गोंड समुदाय
कोया वंशीय गोंड समुदाय में कोया , कोयतूर , कोयाल , कोयजा , ओझा , कोतकारी , ओतकारी , कोंडरा , कंडरी , कोईकोपा , कोयगा , बयगा , पारा , पाटारी , थोटी , कोलाम , कोंड , कांद , कोमुडा , कोटरा , काला , खोंड , भैना , भारीया , बत्रा , बिझवार , कुरुक , परजा , नगारची , कोईखाती , अरख , गदबा , मारीया , भईला , मिन्ड , गिज , कोला आदि अनेक जनजातियों का समावेश होता है । इन सभी जनजातियों में एक समान सगायुक्त सामाजिक व्यवस्था , एक समान गोत्र व्यवस्था , एक समान देवि देवताओं की उपासना तथा एक समान भाषा प्रचलित है । इन सभी जनजातियों के लोगों को गोंडी भाषा में आप कौन है ? ऐसा सवाल पूछे जाने पर हम कोयतोर या कोईतूर है , ऐसा जवाब देते हैं । जिसका अर्थ हम कोया वंशीय है , कोया पुनेमी हैं , ऐसा होता है ।
(6) - संस्थापना कोया पुनेम मुठवा
(7) - हम कोयतोर या कोईतूर है
कोया वंशीय गोंड समुदाय में कोया , कोयतूर , कोयाल , कोयजा , ओझा , कोतकारी , ओतकारी , कोंडरा , कंडरी , कोईकोपा , कोयगा , बयगा , पारा , पाटारी , थोटी , कोलाम , कोंड , कांद , कोमुडा , कोटरा , काला , खोंड , भैना , भारीया , बत्रा , बिझवार , कुरुक , परजा , नगारची , कोईखाती , अरख , गदबा , मारीया , भईला , मिन्ड , गिज , कोला आदि अनेक जनजातियों का समावेश होता है । इन सभी जनजातियों में एक समान सगायुक्त सामाजिक व्यवस्था , एक समान गोत्र व्यवस्था , एक समान देवि देवताओं की उपासना तथा एक समान भाषा प्रचलित है । इन सभी जनजातियों के लोगों को गोंडी भाषा में आप कौन है ? ऐसा सवाल पूछे जाने पर हम कोयतोर या कोईतूर है , ऐसा जवाब देते हैं । जिसका अर्थ हम कोया वशीय है , कोया पुनेमी हैं , ऐसा होता है ।
(8) - गोंडी शब्द का अर्थ
उसौतरह गोंडी भाषा में मीवा इद बतौ रगड़ा आदू ? ( आपकी यह कौनसी व्यवस्था है ? ) ऐसा सवाल पूछने पर मावा इद गोंडी रगड़ा आंदू ( हमारी यह गोंडी व्यवस्था है ) , ऐसा जवाब देते हैं । इस तरह आज भले ही वे भिन्न नामों से जाने जाते हैं , फिर भी मूल रूप से वे कोया वशीय और गोंडी व्यवस्था से जुड़े हैं । गोंडी भाषा में इस घरती को सिंगार दीप या गण्डोदीप कहा जाता हैं । सिगार दीप और गण्डोदीप इन दोनों शब्दों का अर्थ पच खण्ड घरती ऐसा होता है । सिंगार दीप यह संयुक्त गोंडी शब्द है जो सईंग + आर + दीप इन तीन शब्दों की मेल से बना है । गोंडी में सईंग याने पाच , आर याने पानी और दीप याने धरती , इसतरह सईगारदीप याने पानी के अदर के पाच द्वीप ऐसा अर्थ होता है । उसी तरह गण्डोदीष यह भी सयुक्त गोंडी शब्द है , जो गण्डो + दीप इन दो शब्दों से बना है । गोंडी भाषा में पांच वस्तुओं के एक संच को गण्डा कहा जाता है , जिस पर से पाच द्वीपों के सच को गण्डो दीप कहा जाता है । गोंडी बुडूम सूर ( गोंडी मूल सुत्र ) से गण्डोदीप के गण्डजीवों की , गण्डजीवों के गोंदोला व्यवस्था की , गोंदोला व्यवस्था के गोंडीवेन समाओं की , गोंडीवेनों की गोंडवानी एवं गोंडवाना की , गोंडवाना के गण्डराज्यों की तथा उनके मूल कोया वश की जानकारी मिलती है । गोंडी बुडूम सूर के अनुसार पंच खण्डों के संयुक्तिकरण से एक गण्डा बनकर इस गण्डोदीष की रचना हुई है । गण्डोदाई के गण्डजीवों ( सतानों ) की पहचान एक गोंदोला ( समुदाय ) में होती है , गोंदोला निवासी गोंडीवेनों की भूमि गोंडवाना नाम से जानी जाती है और उनकी बोली भाषा को गोंडवानी कहा जाता है । उसी तरह गण्डोदीप के गण्डजीवों की उत्पत्ति गण्डोदाई ( धरती दाई या आदि शक्ति दाई कली ककाली ) की कोया ( कोख ) से हुई है , इसलिए कोया वंश बना है । जिस तरह मनु के मानवों की व्यवस्था आर्य या हिन्दु , मेरी के मैनों की व्यवस्था ईसाई और आदम के आदमियों की व्यवस्था इश्लाम है , ठीक उसीतरह कोया से जन्म लेनेवाले कोयाशियों की व्यवस्था गोंडी है । गोंडी व्यवस्था एक जीवन प्रणाली है , एक सभ्यता है , जो विशेष सामुदायिक मूल्यों से परिपूर्ण है , जिसे गोंडी पुनेम कहा जाता है । कोया वशियों की विशेष गोंदोला व्यवस्था ( सामुदायिक व्यवस्था ) प्रस्थापित होने के पूर्व उनके भूभाग को कोयामूरी द्वीप कहा जाता था ।
कोयामूरी दीप इस गोंडी शब्द का अर्थ कोया वंशीय पुत्रों का भूभाग ऐसा होता है। ( ३ )
(9) - सजोरपेन तथा बुढालपेन का उपासक
प्राचीन काल में आज से कई हजार वर्ष पूर्व सभू- गवरा के कार्यकाल में पुर्वाकोट गणराज्य के गणप्रमुख पुलशीव के परिवार में रूपोलग पहादी पारी कुपार लिंगो नामक कोया पुगार ने जन्म लिया । और कोयामूरी दीप के कोया वंशियों का प्रनेता बना और जिसने उनके सर्वकल्याण साध्य करने हेतु गोंडी पुनेम की संस्थापना की । उसका सम्पूर्ण जीवन चरीत्र तथा उसके द्वारा प्रस्थापित गोंडी पुनेम के मूल्यों की जानकारी आज भी गोंड समुदाय में उनके धार्मिक कथासारों एवं लोकनृत्य गीतों के माध्यम से विद्यमान हैं । उस अद्वितीय महापुरूष की चरीत्र गाथा , उसके द्वारा प्रस्थापित किए गए गोंडी पुनेमी नीति सिध्दात और सगावेन घटक युक्त सामुदायिक सरचना की दार्शनिक जानकारी अलिखित होने की वजह से कोया वशीय गोंड समुदाय के प्रबुध्द लोग अन्य धर्मियों के प्रभाव में आकर अपने मूल धर्म के प्रति अपनी असीम उदासीनता दर्शाते है , यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण बात है । गोंड समुदाय का सामाजिक तथा धार्मिक दर्शन इतने उच्च कोटि के मूल्यों से परिपूर्ण है कि उस समुदाय के गणराज्यों पर आर्यों से लेकर आजतक कितने तो भी बिदेशियों का आक्रमण हुआ , उनकी राज्यसत्ता छीन ली गई तथा सामाजिक , धार्मिक एवं आर्थिक व्यवस्था तहस नहस की गई , फिर भी गोंड समुदाय के धार्मिक मूल्यों पर उसका कुछ भी प्रभाव नहीं हो पाया । प्राचीन काल में भी वह समाज फडापेन , परसापेन , सजोरपेन तथा बुढालपेन का उपासक था , आज भी है और भविष्य में भी रहेगा ।
(10) - वर्तमान हालात पर थोड़ी शर्म आएगी.
प्राचीन काल में भी संभू मूला के द्वारा प्रतिपादित मूंदशूल ( विशूल ) मार्गयुक्त जयसेवा मंत्र का परिपालन कर्ता था , आज भी है और भविष्य में भी बना रहेगा । इन सभी विशेषताओं की ओर ध्यान देने पर कोया वशीय गोंड समुदाय के सगाजनों का गोंडी पुनेम गुरू पहादी पारी कुपार लिगो के प्रति स्वाभिमान जाग्रत होना स्वाभाविक बात है । क्योंकि वह उनके सगावेन गोंडी गोंदोला का गण्डजीव था जिसने उन्हें चीरस्थाई गोंडी पुनेम का यथार्थवादी मार्ग बताया है । उसके द्वारा प्रस्थापित की गई सगावेन घटक युक्त सामाजिक व्यवस्था उनके प्राचीन प्रगत सभ्यता की एक विशालकाय वृक्ष है , जो आज के प्रतिकुल परिस्थितियों में भी फल फूलते ही जा रहा है । इसलिए उसका चरीत्र , उसका गोंडी पुनेम दर्शन तथा सामाजिक नीति सिध्दांतों एवं मूल्यों का अर्थ जानने की जिज्ञासा न केवल कोया वंशीय गोंड समुदाय के गण्डजीवों में बल्कि सभी वर्ग एवं धर्म के लोगों में होनी चाहीए । गोंडियनों का गोंडी पुनेग दर्शन उच्चतम मूल्यों से परिपूर्ण होकर भी आज उसकी जानकारी उस समुदाय के गण्डजीवों को नहीं होना यह बहुत ही दुखपूर्ण एवं आश्चर्यजनक बात है । पारी कुपार लिगो जैसा महान योगिक तथा बौष्टिक ज्ञानी पुरूष कोया वशीय गोंड समुदाय का गोंडी पुनेम मुठवा ( गोंडी धर्म गुरू ) होकर भी उसके विषय में अभिज्ञ रहना या उसे प्राप्त करने की जिज्ञासा मनमें जाग्रत नहीं होना , यह स्वयं को गोंडवाना के गोंडियन कहलानेवाले गण्डजीवों के लिए बहुत ही शर्मनाक बात है । गोंड समुदाय के लोगों में उनकी प्राचीन धार्मिक , ऐतिहासिक सांस्कृतिक तथा सामाजिक मूल्यों के प्रति बेगजब उदासिनता दृष्टिगोचर हो रही है । इसलिये उनकी सही योग्यता से वे अभिज्ञ हो गए हैं । अपने प्राचीनतम घरोहरों के बारे में स्वाभिमान जाग्रत होने पर ही उन्हें अपने वर्तमान हालात पर थोड़ी शर्म आएगी तथा उसे सुधारने की प्रबल इच्छाशक्ति उनमें जाग्रत हुए बिना नहीं रहेगी ।
(11) - न्याय एवं दण्ड
प्रस्तुत विषय इसी तारतम्य की कृति है । इस ग्रंथ को लिखते समय कोया वशीय गोंड समुदाय में अनादि काल से प्रचलित धार्मिक कथासारों , किबदन्तियों , लोकगीतों , नृत्यगीतों और सामुदायिक नीतिमुल्यों के पीछे जो दर्शन अभिप्रेत है , उसका आधार लिया गया है । अन्त में पहादी पारी कुपार लिंगो के पुनेम विचार , नीति विचार , सगावेन युक्त सामाजिक व्यवस्था का सारदर्शन , मुंजोक सिध्दात , सर्व कल्याणवादी सिध्दांत , गोटुल दर्शन , फड़ापेन शक्तिउपासना का महत्त्व , सर्व साधारण नीतिबोध , सगा सामाजिक संस्कार , गोंड समुदाय सामुदायिक रिवाजी न्याय एवं दण्ड व्यवस्था और गोंडी पुनेम प्रचार का ऐतिहासिक सार दिया गया है । में प्रचलित कथासारों के अनुसार पहादी पारौ कुपार लिगो का गोंडी पुनेम प्रचार कितना और कहा तक हो चुका था इसका प्रमाण मिलता है । पारी कुपार लिगो के अनुयायियों की संख्या सर्व प्रथम मण्डुन्द कोट ( तैंतीस ) थी । जिस भूभाग पर उसके अनुयायियों ने गोंडी पुनेम का प्रचार किया था उसे कोयगूरी द्वीप कहा जाता था ।
(12) - कोयमूरी दीप के कुल चार सभाग थे
कोयमूरी दीप के कुल चार सभाग थे ( १ ) उम्मोगुट्टा कोर ( २ ) अफोकागुट्टा कोर , ( ३ ) सईमालगुट्टा कोर और ( ४ ) येरूगुट्टा कोर । गोंडी पुनेमी मूठ लिगो मत्रों से उक्त कोयगूरी दीप के चार सभागों में पुर्वाकोट , मुर्वाकोट , हर्वाकोट , अमूरकोट , सिर्वाकोट , वर्वाकोट , नर्वाकोट , सर्वाकोट , येरगुडाकोट , पेंडूरकोट , पतालकोट , चीतेरकोट , आदिलकोट , लकाकोट , सुडामकोट , परदूलकोट , कीरदूलकोट , साबूरकोट , सियालकोट , सुमेरकोट , उमेरकोट , सिनारकोट , मीनारकोट आदिगण्डराज्य और नरालमादाल , जवाराल , महादाल , सोनगोदाल , मयान , पेनगोदा , वेनगोदा , पेन्कढोडा , गोंदारी , खोबरी , सभूर , मागोंडमूरी , भारेट , टागरी , उर्टागरी , पनीर , पेनाल आदि नदिया , उम्मोली सिधाली , बिदरा , कजोली , रोमरोमा , भिमागढ़ , आऊटबटा , निलकोंडा , सयमंडी , सियाडी , पुल्ली मेट्टा , पेडूममेटा , बाकाल मेटा आदि पर्वत थे ।
(13) - सम्पूर्ण परिक्षेत्र एवं भूभाग
उक्त सभी गण्डराज्य , नदीनाले , पर्वतमालाए और जगलों की स्थल निश्चिति गोंडवाना जीव जगत , उत्थान पतन और पुनरुत्थान संघर्ष की लेखिका बद्रलेखाजी ने अपने उक्त पुस्तक में किया है । उक्त सम्पूर्ण परिक्षेत्र एवं भूभाग गोंडी पुनेम का प्रचार एवं प्रसार कार्य किया गया था , इस बात की पुष्टि होती है , जो गोंड समुदाय के लिए स्वाभिमान याने गर्व की बात है । उपरोक्त सभी गण्डराज्य , नदीया , पर्वत और वनों का परिक्षेत्र कोया वशीय गोंडीवेन समुदाय के कोयमूरी दीप में थे , जिसे सिगार दीप कहा जाता था । इतने बडे विशालतम परिक्षेत्र को देखकर गोंडी पुनेम का प्रचार एवं प्रसार कितने बड़े भूभाग में हो चुका था इस बात की सत्यता प्रबुध्द पाठकों के समझ में आ सकती है । उसी तरह इस वर्तमान भारत वर्ष का सर्व प्रथम पुनेम कोया वंशीय गोंड समुदाय का गोंडी पुनेम है । उसके पश्चात आर्य , वैदिक , हिन्दु , जैन , बौध्द , शिख , इसाई , पारसी आदि धर्मों का उदय हुआ ।
(14) - लड़ाई , झगड़े तथा संघर्ष किया करते थे
(15) - प्राकृतिक कालचक्र
प्राकृतिक कालचक्र में स्वयं को समायोजित कर अपना अस्तित्व बनाए रखने हेतु सबल और बुध्दिमान नवसत्त्व कोया वशीय समुदाय में निर्माण होना चाहिए , यह जानकर उसने अपने बौष्दिक ज्ञान बल से सम विषम गुण सस्कारों के अनुसार सगावेन घटक युक्त सामुदायिक व्यवस्था प्रस्थापित किया और सम - विषम गोत्र , सम विषम गोत्र चिन्ह , और सम विषम सगावेन घटकों में पारी ( वैवाहिक ) संबंध प्रस्थापित करने का मार्ग बताया । क्योंकि दो परस्पर विरोधी गुणसस्कारों के क्रिया प्रक्रिया से ही सबल और बुध्दिमान नवसत्व निर्माण हो सकते हैं , इस प्रकृति के रहस्य को उसने सर्व विदीत किया । कोया वशीय गोंडी सगावेन गोंदोला की सामाजिक व्यवस्था विश्व की सर्व श्रेष्ठतम और उच्च कोटि के मूल्यों से परिपूर्ण व्यवस्था है ।
(16) - प्रथम संभू शेक कोसोडूम
गोंडी पुनेम का अंतिम लश सगा जन कल्याण साध्य करता है । ४ . उसके लिए इस पंचखण्ड धरती के प्रथम संभू शेक कोसोडूम के द्वारा प्रतिपादित की गई मुदशूल मार्ग के आधार पर जय सेवा मार्ग बताया । जय सेवा याने सेवा भाव का सदा जयजयकार हो अर्थात् एक दूसरे की सेवा करके ही सगाजनों और प्रकृती के अन्य सभी जीवाश्मों का कल्याण साध्य किया जा सकता है । पारी कुषार लिंगो का मुदशूल सरौं मनुष्य के बौध्दिक , मानसिक और शारीरिक अंगों से संबंधित है , जिसके द्वारा चलकर सभी जीवों का कल्याण साध्य होता है । मनुष्य इस प्रकृति का ही अंश है । अत : प्रकृति के अन्य सत्वों की सेवा उसे सदा प्राप्त होती रहे इसलिए प्राकृतिक संतुलन बनाए रखना अनिवार्य है । कोया वशीय गोंडीवेन सगा समुदाय को उसने कुल ७५० कुलगोंत्रों में विभाजित किया और प्रत्येक कुलगोत्र के लिए एक पशु , एक पक्षी तथा एक वनस्पति को कुलचिन्ह के रुप में आवंटित किया । प्रत्येक कुलगोत्र धारक अपने कुलचिन्ह से संबंधित प्रकृति के सत्वों की सुरक्षा करते हैं ।
(17) - प्रकृति का संतुलन
और अपने कुलचिन्हों के सत्वों को छोड़कर अन्य जीव सत्वों का मात्र आवश्कता नुसार भक्षण भी करते हैं । इसतरह ७५० कुल गोत्र धारक कोयमूरी दीप के कोया वंशीय गोंडी सगावेन गोदोला के जीवगण्ड एक साथ २२५० प्राकृतिक जीव सत्वों की एक ओर सुरक्षा भी करते है तो दूसरी ओर उतने ही सत्वों की आवश्यकता नुसार भक्षण भी करते हैं , जिससे प्रकृति का संतुलन बना रहता है । इस तरह सभी जीवों को प्रकृति की सेवा निरंतर प्राप्त होती रहे , इसलिए प्राकृतिक संतुलन बनाए रखने हेतु गोंडी पुनेम मुठवा पहादी पारी कुपार लिंगोने कोया वंशीय समावेन गोंदोला के जीवघडों को गोंडी पुनेम का मार्ग बताया । जो आज भी कायम है । ६ . संपूर्ण कोया वंशीय समुदाय को समायुक्त सामाजिक संरचना में विभाजित करने के पश्चात उस समावेन घटकयुक्त सामुदायिक व्यवस्था को पोषक हो ऐसे व्यक्तित्व नववंश में घड़ाने हेतु पहादी पारी कुपार लिंगो ने हर ग्राम में गोटुल नामक संस्कार एवं शिक्षा केंद्र की संस्थापना की । उसमें छोटे बालबचों को उनके तीन साल से लेकर अठारह साल तक उचित शिक्षा प्रदान करने का कार्य पारी कुपार लिगाने शुरू किया । उक्त गोटुल संस्था में छोटे बालबच्चों की मानसिक शक्ति एवं प्रवृत्तियों का विकास , उनके उपयोजन गुणों का विकास , उनके व्यवहारिक क्षमताओं का विकास , शारीरिक स्वास्थ्य और संवर्धन क्षमताओं का विकास साध्य करने के लिए गाव गांव में ज्ञाता गोटुल प्रमुखों को नियुक्ति करने का मार्गदर्शन किया ।
(18) - शारीरिक और मानसिक विकास
इस पर से कोया वशीय जीवगण्डों का सर्वागिण विकास साध्य करने हेतु पारी कुपार लिगोने अपने गोंडी पुनेम दर्शन में बौध्दिक , शारीरिक और मानसिक विकास को अधिक महत्व दिया है । ७ . ८ . कोया पुनेम गुरु पारी कुपार लिगोने कोया वशीय सगावेन समुदाय के गण्डजीवों को पाच वदनीय एव पूजनीय सत्व प्रदान लिए हैं - १ ) सगा , २ ) गोटुल ३ ) पेनकड़ा ४ ) पुनेम और ५ ) मुठवा इन पाच सत्वों को गोंडी पुनेम का मूलाधार कहा जाता है । सगा याने सगावेन घटक युक्त सामुदायिक व्यवस्था , गोटुल याने शिक्षा तथा सस्कार केंद्र , पेनकड़ा याने सर्वोच्च शक्ति का उपासना स्थल , पुनेम याने जीवन का सत्मार्ग और मुठवा याने गोंडी पुनेम सार के ज्ञाता गण्डजीव । इन पाच वदनीय एवं पूजनीय सत्वों को आदर्श मानकर उस अनुसार चलने से सगाजीवों का कल्याण साध्य किया जा सकता है ।
(19) - सेवाभाव और सत्यवाणी
प्राकृतिक न्याय तत्त्वपर आधारित मुजोक अर्थात् अहिंसा दर्शन का सिध्दांत भी पहादी पारी कुपार लिगोने प्रतिपादित किया है । मान मतितुन नोय सिअवा , जोक्के जीवातुन पौसीहवा , जीवा सीयेतुन हिले माहवा , जीवा ओयेतुन हिले ताहवा , पहादी पारी कुपार लिंगो का यह गोंडी पुनेमी मुजोक सिध्दात एक ऐसा अनोखा दर्शन है , जो प्रकृति के न्याय दर्शन पर आधारित है । ९ . सत्यमार्ग से चलने के लिए सगा पुय सरौं , सगा पारी पुय सरौं , सगा संगी पुय सर्रा , सगा सेवा पुय सर्रा और सगा मोद पुय सर्रा यह पुनेम विचार उसने कोया वंशीय सगावेन समुदाय के जीवगण्डों को दिया है , और यही वजह है कि इस पुनेम के मार्ग पर चलने से कोया वशीय सगावेन गोंदोला के गण्डजीवों में शतप्रतिशत सत्यनीति , इमानदारी , सेवाभाव और सत्यवाणी ही हर पल और हर कदम पर दृष्टिगोचर होता है । सभू शेक की जो समकालौन जोड़ी थी , जिसे संभू - गवरा की जोड़ी से जाना जाता था के डमरु ( गोएन्दाड़ी ) की आवाज से पारी कुपारी लिगोने गोएदाड़ी वाणी की रचना की और उसी वाणी से गोंडी पुनेम का प्रचार एवं प्रसार किया ।
(20) - संपूर्ण कोयमूरी दीप
(21) - यादमाल कोट के यादराहुड कोट
संभ् गवरा के जीवन काल में गण्डोदीप के कोया वंशीय गण्डजीवों की बोली , भाषा , संस्कृति के साथ साथ कोट और गण्डराज्यों की व्यवस्था , कृषि अर्थ व्यवस्था आदि का निश्चित रूप से विकास हो चुका था । नार , गुडा , कोट एवं गढ़ों की व्यवस्था प्रस्थापित हो चुकी थी । किन्तु उनमें सुनियोजित जीवन जीने के मूल्यों का अभाव था । संभू गवरा के जीवन काल में यादमाल कोट के यादराहुड कोट प्रमुख की कन्या कलिया कुवारी ( कली कंकाली ) , परदुलीकोट के कोषाल पोय गणप्रमुख की कन्या रायतार जंगो और पुर्वाकोट के पुलशीव गणप्रमुख के पुत्र रुपोलंग ने जन्म लिया । इन तीनों महान जीवोंने अपने जीवन में सम्पूर्ण कोयमूरी दीप के चारों संभागों में निवास करनेवाले कोयावशीय समुदाय के गण्डजीवों को विशेष सामुदायिक , सास्कृतिक एवं धार्मिक मूल्यों से परिपूर्ण नया जीवन मार्ग प्रदान किया ।
(22) - दाई कली कंकालीने संगाबेनों को जन्म दिया
दाई कली ककालीने संगाबेनों को जन्म दिया , दाई रायतार जंगोने उनका परवरिश किया , दाई गवराने उन्हें अपने आचल में बिठाकर दूध पिलाया , दाऊ सभू शेक ने उन्हें उचित जीवन मूल्यों की शिक्षा प्रदान करने हेतु कोयली कचाड़ कोप में बंद किया , और सभू गवरा के मार्ग दर्शन पर रुपोलग पहादी पारी कुपार लिगों ने हीरासुका पाटालीर की मदत से मुक्त कर अपने शिष्य बनाया तथा गोंडी पुनेमी मूल्यों से शिक्षित एवं दीक्षित कर उनके माध्यम में सम्पूर्ण कोया वशीय जीवगण्डों को सगावेन घटक युक्त सामुदायिक संरचना से सरचित किया । समू - गवरा के गोंएन्दाड़ी की सर - लेंग को पहचान कर पहादी पारी कुपार लिंगोने गोएन्दाड़ी वाणी की रचना की , जिसके माध्यम से उसने अपना पुनेम प्रचार किया । वही गोएन्दाड़ी वाणी कोया वशीय गोंडी गोंदोला के गण्डजीवों की गोंडवाणी बनी है । जो कई हजारों वर्ष प्राचीन है । लिगोने सर्व प्रथम फरापेन सल्ला - गांगरा शक्ति को मुख्य पेन गढ़ अमूरकोट में प्रतिस्थापित किया , जहाँ पर नरमादा , दाऊदाई शक्तिने कोया वंशियों के मूल गण्डजीव आदि रावेन पेरियोर और आदि सुकमा पेरी को जन्म दिया था । कोयली कचाड़ लोहगढ़ को सगावेनों की मुक्तिभूमि बनाया , लाजीकोट को गोंडी गण्डजीवों के सगावेनों की मूल नाभी बनाया और तत्पश्चात सात सौ पचास गोवजों के पृथक पेनगढ़ स्थापित कराया । प्रत्येक गोत्र धारक को एक प्राणी , एक पक्षी और एक वनस्पति ऐसे कुल तीन तीन गोत्र चिन्ह आवंटित कर उन्हें सगावेन समुदाय में सरचित किया । इसी दौरान सिंगार दीप के विद्यमान संभू - शेक की जोड़ी संभू - गवरा वेनरुप से पेनरुप अवस्था में विलिन हो गई अर्थात् उनकी जीवन कालमर्यादा समाप्त हो गई और उनके उत्तराधिकारी के रुप में संभू – बेला की जोड़ी ने सिंगार दीप का कार्यभार संभाला । गोंडी पुनेम मुठवा पंहांदी पारी कुपार लिंगो और विद्यमान संभू शेक की जोड़ी समू - बेला ने उनके पूर्व संभूशेक की जोड़ी समू - गवरा ' के और उनके वाहन नांदीयाल कोंदा के स्मृति में नांदियाल कोंदा के साथ संभू - गवरा पिण्ड की प्रतिस्थापना पेनमेढ़ी और अमूरकोट में की । तत्पश्चात गण्डोदीप में जहाँ जहा गोंडीवेनों का विस्तार होता गया , वहां वहां सभू - गवरा के पिण्डों की संस्थापना धरती के स्वामी के रुप में वे करते गए । यह कार्य गोंडी पुनेम मुठवा पहादी पारी कुपार लिगो के मार्गदर्शन से उसके मण्डुन्द कोट अनुयायियों के द्वारा होते रहा , इसलिए उसे लिंगो - पिण्ड भी कहा जाता है ।
(23) - सयू - भूई शक्ति अर्थात्
सभू - गवरा के स्थापित पिण्ड को सयू - भूई शक्ति अर्थात् पच खण्ड धरती की शक्ति ऐसा भी कहा जाता है । संभू गवरा के पश्चात इस गण्डोदीप के स्वामी समू बेला , सभू - मूरा , सभू - तुलसा , समू उमा , समू - गिर्जा , सभू - सत्ती , समू पार्बती आदि " नालनरु ' ( उनचास ) संभू शेक हुए तथा उनके समकालीन जो भी गोंडी पुनेम मुठवा लिगो बने वे सभी सल्ला गागरा शक्ति के साथ साथ सभू गवरा पिण्ड के भी उपासक रहे । सिंगार दीप के स्वामी संभू शेक की अनुमति प्राप्त किए बिना तथा उसकी अधिसत्ता मान्य किए बिना इस कोया वशीय गोंडी पुनेम गोंदोला के गण्डजीवों की घरती पर कोई भी बाहरी व्यक्ति प्रवेश नहीं पा सकता था । इस धरती में प्रवेश पाने , यहा स्थाई रूप से बसने , अपना वंश विस्तार करने और मरणोपरान्त इसी धरती में समाधिस्त होने हेतु इस धरती के राजा सभूशेक की अनुमति पाकर राजस्व चुकाना पड़ता था । इसलिए सभूशेक को सयू पूई के सभू स्वयमू , गण्डजीवों के गण्ड महागण्ड , देवों के देव महादेव , नाथों के नाथ महानाथ , कालों के काल महाकाल , डोमों के डोम महाडोम , लिंगो के लिंगो महालिगो आदि संज्ञाओं से जाना जाता है । सभू- गवरा के पश्चात उसके उत्तराधिकारी सभूशेकों और लिगोओं के द्वारा गोंडवाना द्वीप समुहों में सभी ओर जहा जहाँ कोया बशीय गण्डजीवों का निवास था वहा बहा समू - गवरा पिण्डों की स्थापना की गई । यह कार्य बर्तमान सतपुड़ा के पेन्कमेढ़ी और अमरकटक ( अमूरकोट ) के बशभौड़ी से आरंभ होकर संपूर्ण पचखण्ड धरती में इसका प्रचार एवं प्रसार हुआ । अफगानीस्थान में इस पाच द्वीपों के स्वामी शभूशेक के पिण्ड को पंचशेर या पाचशीर कहा जाता है । ग्रीक में प्रचलित शेबोन पूजा भी पांच द्वीपों के स्वामी की पूजा है । शेबोन या हेबोन का अर्थ ही ग्रीक भाषा में पाच द्वीप ऐसा होता है । वर्तमान भारत में संभू - गवरा पिण्ड का नामांतरण बाद में संभू – गराम , शालीग्राम , शिवगराम , शिवलिंग इसतरह होकर उसे एक विशेष शैव पंथ से जोड़ दिया गया है ।
(24) - पुनेमी पहचान.
(25) - पेन्कमेढ़ी कोट पंचमढ़ी
फरावेन सईलागरा दाऊ दाई का प्रतिक नरमादा नदी अमूरकोट के कोया वश भीड़ी से उद्गमित होकर कोया पिलांग धारा को लेकर आज भी प्रवाहित है । कोया वश भीड़ी को वर्तमान में वश भीरा कहा जाता है । झर झर नरमादाल वाता रो , कोया वशीन जीवदान सीता रो इस गोंडी नृत्यगीत के माध्यम से नरमादा रुपि फराबेन सईलागरा (गोंडी नृत्य वाद्य के प्रकार ( ज्येष्ठ दाऊ दाई ) शक्ति का गुणगाण आज भी गोंड समुदाय में किया जाता है । जिस येरुगुट्टा कोर सभाग के पेन्कमेढ़ी कोट के कोटप्रमुख कुलोतरा के कुटमार में प्रथम सभू कोसोडुम का जन्म हुआ और वह सभू - मूला की जोड़ी से प्रख्यात होकर सयुग भूई का राजा बना तथा उसके पश्चात निरतर अरुरु ( अट्ठाशी ) सभूओं की प्रभूसत्ता सत्पूड़ा ( सत्ता का केंद्र ) पेन्कमेढ़ी कोट से चली , वह पेन्कमेढ़ी कोट पंचमढ़ी के नाम से आज भी विद्यमान है । सभू मूला से सभू पार्वती तक सभी सभू जीवित थे तबतक उसे वेनमेढ़ी कहा जाता था और उनके अवसानोपरात सभी वेन से पेनरुप हो गए । इसलिए उसे पेन्कमेढ़ी कहा जाने लगा । पेन्कमेढ़ी का अर्थ देवों की केंद्र भूमि ऐसा होता है । वहा से जो नदी उद्गमित होकर बह रही है उसे गोंडी में पेन्क ढोडा कहा जाता है , जिसका नाम वर्तमान में पेंचनदी है । पेंचनदी रुपि पेकढोडा आज भी कोया बशीय समुदाय के सभूशेकों की श्रृखलाबध्द गाथा बयान करती है । साल्मेकुल कोट के लाजीगढ़ में अपने सगावेन शिष्यों को शिक्षित एव दीक्षित कर उन्हें जिस नदी के प्रवाह में पहादी पारी कुपार लिगोंने गोंडी पुनेमी मूल्य एवं प्रथम सभूशेक भू - मूला के द्वारा प्रतिपादित मुन्दमुन्शूल सर्रा ( वैगुण्यशूल मार्ग ) की शपथ दिलाई थी , वह वेनगोदा आज भी वेनगगा के रुप में प्रवाहित है । गोंड समुदाय के सगावेन जबतक जीवित थे , तबतक वे वेन रुप में थे और उनके अवसान के पश्चात वे वेनरुप से पेनरुप हो गए , और जिस नदी किनारे उनका गुड्डीगोदा बनाया गया था , वह पेनों का गोदा पेनगोदा नदी आज भी पेनगंगा के रुप में विद्यमान है ।
(26) - तेलंगणा के अदिलाबाद
गोंडी पुनेम मुठवा मुठवापोय पहादी पारी कुपार लिगो को जिस पर्वत की तराई में सुयमोद ( सत्यज्ञान ) का साक्षात्कार हुआ , वह कुपार मेट्टा आज भी वर्तमान भंडारा जिले के सालेकसा तहसील में स्थित है । गोंडी सगावेनों को संभू - गवरा ने जिस गुफा में बंद कर रखा था वह कोयली कचाड़ लोहगढ़ गुफा भी आज जैसे थे हावड़ा बम्बई रेल्वे लाईन के दरेकसा रेल्वे स्थानक के पास विद्यमान है । गोंडी सगावेनों की दाई कली ककाली के माता पिता का यादमाल पुरी कोट आज मी चादागढ़ के रुप में साक्षात विद्यमान है । गोंडी पुनेम दाई रायतार जगो का ठाना कोटा परदुली तेलंगणा के अदिलाबाद जिले में निलकोंडा पर्वत में स्थित है । गोडी पुनेम के सगावेनों का वेनाचेल आज भी वेनाचल के रुप में झारखड में है और सगावेनों के दाई का वेनदाई आचेल वेंद्याचल के रुप में आज मी वेनदाई ( विन्ध्य ) पर्वत में हैं । अमूरकोट से समदूर के पानी के प्रवाह में बहकर फरावेन सईलागरा के बच्चे आदि रावेण पेरियोल और सुकमा पेरी ने सर्व प्रथम जिस सिंगार दौप में अपना वेल विस्तार किया वह सिगार दीप का माग सीदी सिंगरोली के रुप में आज भी जाना जाता है
(27) - गोंडी पुनेम प्रचार आरंम
गोंडी पुनेम गुठवा पहादी पारी कुपार लिगोने सर्व प्रथम जिस गढ़ से अपना गोंडी पुनेम प्रचार आरंम किया था वह लिगोगढ़ अमरकटक के पास में आज भी है । उम्गोगुट्टा कोर में स्थित बारह नदियों का मागोंडगूरी प्रदेश आज भी मान्टगोमरी के नाम से जाना जाता है । और उसके परिक्षेत्र में स्थित हर्वाकोट , मुर्वाकोट और कोंदाहार कोट आज भी हड़प्पा , मोहनजोदड़ो और काधार नाम से जाने जाते है । इस तरह गोंडीवेन गोंदोला के गण्डजीवों के पुनेमी मूल्यों को ऐतिहासिक गाथा वर्तमान भारत का हर एक परिक्षेत्र बयान करता है । गोंडी पुनेम मुठवा पोय रुपोलग पहादी पारी कुपार लिगो ने इस पच खण्ड घरती पर चारों सभागों में निवास करनेवाले कोया वशीय गण्डजीवों को बारह सगावेन घटक शाखाओं और कुल सात सौ पचास गोत्रों में विभाजित कर हर एक गोत्र का पृथक पेनगढ़ स्थापित कराया । हर एक गोत्र के सभी गण्डजीव अपने परसापेन या फड़ापेन शक्ति की उपासना अपने अपने पेनगढ़ में किया करते थे । यह व्यवस्था गोंड समुदाय में आज भी कायम है । गोंड समुदाय के गण्डजीवों के यह पेनगढ़ कोई इट , गारा , रेती , सिमेंट या पत्थर से बनाए गए देवालय नहीं होते बल्कि महुआ , सरई , साजा , पहादी , पदाम , पीपल , बरगद आदि पेड़ पौदों के स्थल होते है , जिसे पेनठाना , पेनसरना , पेनभिना या पेनकड़ा कहा जाता है । इस पेनगढ़ व्यवस्था के साथ लिगोने राज्य व्यवस्था सुचारु रुप से चलाने हेतु कोट , परगना , गढ़ आदि के रुप में गण्डाराज्यों को प्रतिस्थापना कराई थी । उनके प्राचीन परगना कोट और गण्डराज्यों के प्राचीन अवशेष आज भी जहांतहां विद्यमान हैं । उनकी राज्य व्यवस्था नार गढ़ मोकाशगढ़ या मुंडेदार गढ़ , परगना गढ़ और राज्यगढ़ या कोटगढ़ ऐसे चार स्तरों में विभाजीत थी ।
(28) - इ . स पूर्व २७०० वर्ष के दौरान
ऐसे इस महान कोया वशीय गण्डजीवों की सभ्यता को सर्व प्रथम इ . स पूर्व २७०० वर्ष के दौरान ऐशिया माईनर के आर्य जातियों के आक्रमण से क्षति पहुंची । एशिया माईनर के घुमन्तु आर्य टोलियों का आक्रमण मेसोपोटामिया के सुमेटकोट से कोन्दाबुल , कोंदाहार , हर्वाकोट , मुर्वाकोट , कोयलीबेड़ा कोट , पेन्कमेड़ी कोट , अमूरकोट , लकाकोट , पुरवाकोट , नर्बाकोट तक हुआ । कोया वशीय गोंडी गोंदाला के गण्डजीवों के जो छोटे छोटे गढ़ कोट थे उनको हथियाने तथा लूटने हेतु उन्होंने कूटनीति का प्रयोक किया । गोंडी गोंदोला के गण्डजीव अपनी अस्मिता की सुरक्षा एवं रक्षा करने हेतु कुछ प्रतिकार करते हुए मर मिट गए , कुछ उनके गुलाम हो गए तो कुछ अपने प्राण बचाने हेतु उम्मोगुट्टा कोर संभाग से दक्षिण की ओर प्रस्थान कर गए । गण्डो दीप के गोंडी गोंदोला के गण्डजीवों की धरती पर कब्जा पाने हेतु आर्योंने उनके शक्तिपूज समूशेक और समकालीन कोया लिंगो पर आघात किया । सभूशेक को पार्वती की मोहजाल में फसाकर नशीली पदार्थो का आदी बनाया गया । उसके विषय में मिथ्या ग्रथों की रचना कर उसका संबध मूल पेन्कमेड़ी से काटकर हिमालय के कैलास पर्वत से जोड़ दिया गया । सभू - गवरा के नाम से स्थापित प्रविकों को शिव लिंग कहा गया और उसकी उपासना को शिश्नयोनी की घृणीत उपासना करार दिया गया । उनकी परसापेन सल्ला गागरा शक्ति की उपासना को भी उसी रुप में घृणीत कहा गया ।
(29) - आर्यों का आक्रमण
(30) - राक्षसगण या दानवगण
पारी कुपार लिगो द्वारा प्रस्थापित गोंडी पुनेमी मूल्यों से गोंड समुदाय के गण्डजीवों को परावृत्त करने हेतु हर संभव प्रयास विगत पाच हजार वर्षों से निरतर जारी है । जैसे सिगार दीप के प्रथम सभू कोसोडुम के द्वारा प्रतिपादित सर्व कल्याणवादी मुन्दमुन्शूल सरौं ( वैगुण्यमार्ग ) को तीन तिगाड़ा - काम बिगाड़ा , तीन तिप्पट - महा बिक्कट ऐसा सबोधित किया गया । कोया वशीय गण्डजीवों के गोंडी पुनेम के चोखो सगुन ( सुभाक ) सात सौ पचास की संख्या को साड़े साती एवं दैभूतों की व्यवस्था करार दिया गया । कोयावशीय गोंडी गोंदोला के सगावेन गण्डजीव स्वयं को दाऊ दाई के नव - दानव , दाऊ दाई के सूर - दस्यूर , दाऊ दाई के इत - दईत , दाऊ दाई के भूत - दैमूत , दाऊ दाई के बीर - दैबीर तथा दाऊ दाई के आस दास , कहते हैं , जिनका अर्थ क्रम से सपूत , रक्षक , वशज , पूत्र , उपासक और सेवक ऐसा होता है , को बेअर्थ रुप में प्रचारित किया गया । जैसे दानव याने विक्राल रुप धारी , दस्यूर याने लुटेरे , दईत याने राक्षस , दैभूत याने प्रेतात्मा , द्रबिर याने पराया और याने गुलाम । इसतरह का मिथ्या प्रचार अपने ग्रंथों के माध्यम से आर्यों ने किया । सभू शेक मादाव याने महादेव भूतप्रेतों का राजा , दईतों का राजा , दस्यूरों का स्वामी , दानवों नाथ , ऐसा प्रचार किया गया और आज भी किया जा रहा है ।
(31) - आर्य अनार्यों में भेद
आर्य अनार्यों में भेद करने हेतु दो गण निर्माण किए गए एक देवगण और दूसरा राक्षसगण या दानवगण । आर्यों ने स्वय को देवगण कहा तो कोया वशियों को राक्षसगण कहा । इन दोंनो श्रेणीयों में अनादि काल से संघर्ष होते आ रहा है । इस संघर्ष को आर्योंने देव और दानवों का संघर्ष , आर्य और अनार्यों का सघर्ष , सूरों और असूरों का संघर्ष , स्वर्ग और धरती का संघर्ष संबोधित किया है ।
(32) - प्राकृतिक मूल्यों के अनुरुप
प्राकृतिक मूल्यों के अनुरुप जीनेवाले कोया वशीय गण्डजीवों की अप्राकृतीक मूल्यों के अनुरुप जीनेवाले आर्यों से निरंतर होनेवाले संघर्ष की वजह से शान्तिप्रिय गोंडी पुनेमियों का राजकीय , आर्थिक , सामाजिक , धार्मिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्था चरमरा गई । उनके प्राचीन गढ़ , कोट , कस्बे आदि ध्वस्त होते गए , और जो शेष हैं उनका भी नामांतरण कर मूल नामोनिशान मिटाने की प्रक्रिया जारी है । उक्त हजारों वर्षों से जारी संघर्ष के कारण कुछ गोंडी पुनेमी गण्डजीव आर्यों के गुलाम हो गए और मजबुरन आर्य धर्मियों के जीवन प्रणाली को स्वीकार कर लिया और आज भी स्वीकारते जा रहे हैं , किन्तु उनके जीवन प्रणाली में उन्हें आज भी सम्मानजनक स्थान प्राप्त नहीं हुआ है । इसी प्रक्रिया में कोया वशीय गोंडी पुनेमी गण्डजीवों पर बुध्द धर्मियों और जैन धर्मियों का भी वर्चस्व रहा ।
(33) - मध्य भारत के कोया वशीय गोंडी गोंदोला
एक जमाने में वर्तमान भारत का सपूर्ण उत्तर पूर्व और दक्षिण माग बौध्द धर्मि महाप्रतापि राजा सम्राट अशोक के अधीन रहा । किन्तु आश्चर्य की बात यह है कि मध्य भारत के कोया वशीय गोंडी गोंदोला के सगावेन गण्डजीवों के गोंडी पुनेमी मूल्यों पर कुछ भी प्रभाव नहीं हुआ । वे अपने स्वीय मूल्यों के अनुसार अपना जीवन बिताते रहे । पुनेमी मूल्यों और बुध्द के विचारों में काफी मात्रा में समानता झलकती है ।
(34) - प्राकृतिक शक्ति परसापेन
पारी कुपार लिगोने प्राकृतिक शक्ति परसापेन ( बुढाल पेन , फड़ापेन , सजोरपेन , सिंगाबोंगा पेन , भिलोटापेन ) रुपि सल्ला गागरा ( ऋण - धन ) शक्ति को माना है , तो बुध्द ने भी प्राकृतिक शक्ति को ही सर्वोच्च शक्ति मान्य किया है । भौतिक जगत की निर्मिति स्वयंसिध्द है , किसि ईश्वरपर उसका अस्तित्व निर्भर नहीं है ऐसा पारी कुपार लिगो का मत है , तो ठीक ऐसा ही बुध्द का भी दर्शन है । पारी कुपार लिगोने गोंगोओं ( देवी देवताओं ) की शक्ति को पूर्वजों के रुप में मान्य किया है , तो बुध्दने भी ठीक इसीतरह देवताओं के अस्तित्व को मान्य किया है । परंतु उन्हें कोई कर्ता शक्ति या ईश्वर के रुप में नहीं माना है । इस मान्यता में मात्र फरक यह है कि पारी कुपार लिगोने मृतक पूर्वजों को देवता ( पेन ) माना है , तो बुध्दने देवताओं का अस्तित्व मनुष्य लोक से भिन्न माना है । पारी कुपार लिगोने जीव जगत की सर्वोच्च शक्ति परसापेन रुप में सल्ला गागरा ( पिता - माता ) शक्ति को माना है और अपने माता पिता की सेवा करने की बात कही है , तो बुध्द का जीव जगत का दर्शन भी कुछ इसी प्रकार का है । पारौ कुपार लिगोने सगावेन गण्डजीवों की गोंदोला ( सामुदायिक ) व्यवस्था प्रस्थापित की है , तो बुध्द ने संघ की व्यवस्था प्रस्थापित की है ।
(35) - पेनकड़ा की स्थापना
(36) - भारत वर्ष में मोगलों का आक्रमण
(37) - पुनेम के मूल्य नष्ट होने की कगार पर हैं
पहादी पारी कुपार लिगो के गोंडी पुनेम दर्शन पर किसी भी प्रकार के ग्रंथ लिखे नहीं होने के कारण आज इस पुनेम के मूल्य नष्ट होने की कगार पर हैं । कोया वशीय गोंडी गोंदोला के गण्डजीवों की आज ऐसी हालत हो गई है कि “ हम कौन है ? हमारी व्यवस्था क्या है ? हमारी आचार संहिता क्या है ? हमारा पुनेम कौनसा है ? इस बारे में उन्हें कोई जानकारी नहीं है । अपने बाल बच्चों के नाम पाठशाला एवं शिक्षा केंद्रों में दर्ज कराते समय जब उनसे शिक्षा केंद्र संचालकों की ओर से उनके धर्म के बारे में पूछताछ की जाती है , तब वे अपने धर्म को बता नहीं पाते । अत में शिक्षा केंद्र के संचालक उनका धर्म हिन्दु लिख देते हैं । इस तरह अनजाने में ही मूल गोंडी पुनेमी व्यवस्था के लोगों के बाल बच्चों का प्रवेश हिन्दु या अन्य धर्मों में होते जा रहा है । सही देखा जाय तो हर धर्म में प्रवेश पाने की कुछ विशेष विधिया होती है , कुछ विशेष धार्मिक संस्कार होते है । जैसे हिन्दु धर्म में प्रवेश दिलाने के लिए यज्ञोपवित मूज सस्कार होता है , मुश्लिम धर्म में प्रवेश दिलाने के लिए खतना सस्कार अदा किया जाता है । तो इसाई धर्म में बाप्तिस्मा किया जाता है । इस प्रकार के कोई भी संस्कार आजतक कोया वंशियों के नहीं होने पर भी वे सरेआम दूसरों की ओर से हिन्दु कहलाए जाते हैं । जब कि हिन्दु और गोंडी पुनेम के मूल्यों में जमीन आश्मान का फरक है ।
(38) - गोंडी धर्मी परसापेन को मानते है
गोंडी धर्मी परसापेन को मानते है , तो हिन्दु ईश्वर को मानते है । गोंडी धर्मियों का धार्मिक स्थल पेड़ पौदे होते हैं , तो हिन्दुओं के धार्मिक स्थल मदीर होते है । गोंडी धर्मियों को काला रंग वयं है , तो हिन्दुओं को स्वीकार्य है । गोंडी घर्मियों की आस्था मातृशक्ति में होती है , तो हिन्दुओं की आस्था पितृशक्ति है । गोंडी धर्मी पूजापाठ करते हैं , तो हिन्दु होम हवन करते है । गोंडी धर्मियों के लिए साडेसाती का अंक शुभ तो हिन्दुओं के लिए अशुभ है ।
(39) - गोंडी धर्म और हिंदू धर्म
गोंडी धर्म के लोग उत्तर दिशा को अशुभ मानते हैं , तो हिन्दु दक्षिण दिशा को अशुभ मानते हैं । गोंड आड़ा तिलक लगाते हैं , तो हिन्दु खड़ा तिलक लगाते हैं । गोंडीयनों की सगावेन युक्त गोंदोला व्यवस्था है , तो हिन्दुओं में जाति व्यवस्था है । गोंडीपुनेम का अंतिम लक्ष सगा सेवा है , तो हिन्दुओं का मोक्ष प्राप्त करना है । गोंडी पुनेमी लोग अपने मृत जीवों को मिट्टी देते हैं तो हिन्द दाह संस्कार करते हैं । गोंडी पुनेमी लोग अपने मृतक जीवों का पेनकारण करते हैं , तो हिन्द श्राध्द करते हैं । गोंड समुदाय में कुलवध की प्रथा है , तो हिन्दुओं में पुत्रवध की प्रथा है । गोंडी पुनेम के अनुसार यह जीवजगत सत्य है , तो हिन्दुओं के लिए यह मिथ्या है । इसतरह गोंडी पुनेम और हिन्दु धर्म में है इसके बावजूद भी उनके बाल बच्चों को जानबूजकर हिन्दु बनाने की प्रक्रिया स्कुलो में सरेआम जारी है । मूलभूत अंतर यह सब कुछ होकर भी काया वशीय गोंडी गोंदोला के गण्डजीवों की सामाजिक व्यवस्था मूल रुप में कायम है । क्योंकि यह व्यवस्था इतने उच्चकोटि के मूल्यों से परिपूर्ण है कि ऐसो सामाजिक व्यवस्था विश्व के किसी भी समाज और उसके जीवन माग रुपि धर्म में नही पायी जाती । उसीतरह वे अपने फड़ापेन ( परसापेन , सजोरपेन , बुढालपेन ) शक्ति को भी मानते ही जा रहे हैं । इन सभी बातों पर विचार करने पर जिस पहादी पारी कुपार लिगोने गोंडी पुनेम की प्रतिस्थापना की वह कितना महान भौतिक जगत का ज्ञाता रहा होगा , यह बात पाठकों के ध्यान में आए बिना नहीं रहेगी ।
(40) - मोतीरावेन कंगाली
इस तरह उस अद्वितीय महामानव का महत्व है , जिसने कोया वंशीय गोंडी गोंदोला सगावेन गण्डजीवों के समदाय में जन्म लिया और उसके बोधामृत से गोंडवाना के गोंडी वेनोंने परे रहना यह आश्चर्य की ही नहीं बल्कि दुर्भाग्य की भी बात है । यही विचार मनमें संजोकर हमने उस महा मानव का चरीत्र और उसका गोंडी पुनेमी मुल्यों का दर्शन गोंड समदाय में प्रचलित पुनेमी किवदान्तियों , जनश्रुतियों , लोक गाथाओं , लोकगीतों , और धार्मिक विधियों का अध्ययन कर लिखने का प्रयास किया है । इसका अध्ययन कोया वंशीय गोंडी गोंदोला के गण्डजीव अवश्य करेंगे और अपनी अस्मिता एवं स्वाभिमान जागृत कर अपने सगाजनों का कल्याण साध्य कर गौरवशाली इतिहास बनाएंगे ऐसा आत्मविश्वास है ।
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